मंदिर
कल मैंने एक Bike ख़रीदी, तो माँ ने कहा: "मंदिर हो आओ।" मैंने कहा: "मंदिर जाने की क्या ज़रूरत? हमारा घर ही मंदिर है: सब जल्दी सोते, जल्दी उठते हैं। सुबह योग, ध्यान की ऊर्जा, और ओमकार का उच्चारण होता है। ताज़ा, शुद्ध भोजन मिलता है। पड़ोसियों से मित्रवत संबंध भी हैं, और उचित दूरी भी। धन की दौड़ नहीं, लेकिन धन का सम्मान भी है। हर एक वस्तु की देखरेख प्रेम से होती है। साफ़ सफाई रहती है। कला और साहित्य के रंग बिखरे हैं घर में। और क्या चाहिए? यही तो मंदिर होता है।"

इन दिनों मंदिर का मुद्दा बड़ा गर्म है। लेकिन इस सारे कोलाहल में हम मंदिर के मूल भाव को ही भूल गए हैं। लोगों के घर कलह, चिंताओं, अशांति से भरे हैं। छोटी छोटी सी बात पर उग्र हो जाते हैं। घर में चार लोग प्रेम से नहीं रह पाते। शायद कुछ लोगों को इतना सब कम पड़ता है इसीलिए धर्म का राजनीतिकरण करके उन्माद, आक्रोश, हिंसा, घृणा फैलाते हैं। अपना ख़ुद का जीवन तो सम्भलता नहीं, धर्म के ठेकेदार बनके बैठ हैं।

कुछ बनाना ही है तो पहले अपने देह को पवित्र अयोध्या बना लो। इसे दूषित, बासे, तामसिक भोजन और नकारात्मक विचारों से मलिन न करो। इसे नए विचारों और मीठे भावों से सजाओ। इसमें चिंतन और रचनात्मकता के रंग और सुगंध भरो।

फिर तुम पाओगे कि तुम्हारा हृदय ही मंदिर बन गया और राम स्वयं आ गए―बिना बुलाए; क्योंकि राम वहीं थे, हमेशा से। राम यानि परम मौन; यानि वेदों की पूर्णता और शून्यता; यानि वह तत्व जिससे सब बना है और सब उसमें विलीन होगा; राम यानि चेतना, यानि परम ऊर्जा, परम तत्व, अनादि-अनंत; राम यानि वो सब कुछ जो है और जो नहीं है; सब कुछ जो आज तक रहा है और रहेगा। राम एक समष्टि हैं, एक सम्पूर्णता। इसी राम-तत्व, राम-चेतना को सभी धर्मों के लोगों ने जाना है और उसे अलग अलग नाम से पुकारा है।

जिसने इस तत्व की एक झलक भी पा ली, उसे अपनी स्वयं की अनन्तता, अपनी विशालता, अपनी शक्ति का अहसास होता है। और उस शक्ति के अहसास के बाद राजनीतिक शक्ति के खेल बचकाने लगते हैं।